डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। एक कौम के ऊपर 2 हजार साल तक बेशुमार अत्याचार हुए। एक कलंक जो इस कौम के लिए श्राप बन गया और सदियों तक उसका नरसंहार होता रहा। ना तो उसके पास रहने का ठिकाना बचा ना ही आजादी। लेकिन इन सब के बावजूद उसने कभी हार नहीं मानी। इसी का नतीजा है कि आज उसके पास अपना देश है और वो इतना शक्तिशाली हो चुका है कि अब दुनिया भी उसका लोहा मानती है। ये कौम कौन सी है और हम किस देश की बात कर हैं। तो शुरु करते हैं एकदम शुरुआत से:
यीशू के जन्म से हजार साल पहले दुनिया में धर्म के दो केंद्र थे। पहला हिंदुस्तान जहां सनातन धर्म की जड़ें मजबूत हो चुकी थीं और दूसरा मिडिल ईस्ट जहां हजरत अब्राहम तीन धर्मों के पैगंबर कहलाने की ओर अग्रेसर थे। हजरत अब्राहम को यहूदी, ईसाई और इस्लाम में शुरुआती पैगंबर होने का दर्जा हासिल है। तीनों धर्मों के मुख्य पूर्वज अब्राहम बने जिनका जिक्र धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। अब्राहम के दो बेटे थे- इस्माइल और इज़ाक। एक बार ईश्वर ने अब्राहम से उनके बेटे इज़ाक की बलि मांगी। बलि देने के लिए अब्राहम ईश्वर की बताई जगह पर पहुंचे। यहां अब्राहम इज़ाक को बलि चढ़ाने ही वाले थे कि ईश्वर ने एक फ़रिश्ता भेज दिया।
अब्राहम ने देखा, फ़रिश्ते के पास एक भेड़ खड़ी है। ईश्वर ने अब्राहम की भक्ति, उनकी श्रद्धा पर मुहर लगाते हुए इज़ाक को बख़्श दिया। उनकी जगह बलि देने के लिए भेड़ को भेजा। यहूदियों के मुताबिक, बलिदान की वो घटना जेरुसेलम में हुई थी। अब्राहम के वंश में इजराइल का जन्म हुआ जो उनके पोते थे। इजराइल ने 12 कबीलों को मिलाकर इजराइल का गठन किया। इजराइल के एक बेटे का नाम जूदा या यहूदा था जिनकी वजह से इस धर्म को Jew या यहूदी नाम मिला।
हजरत अब्राहम के बाद यहूदी इतिहास में सबसे बड़ा नाम 'पैगंबर मूसा' का है। हजरत मूसा ही यहूदी जाति के प्रमुख व्यवस्थाकार हैं। हजरत मूसा को ही पहले से चली आ रही एक परंपरा को स्थापित करने के कारण यहूदी धर्म का संस्थापक माना जाता है। हजरत मूसा के बाद यहूदियों को विश्वास है कि कयामत के समय हमारा अगला पैगंबर आएगा। मूसा मिस्र के फराओ के जमाने में हुए थे। यहूदियों की धर्मभाषा 'इब्रानी' (हिब्रू) और यहूदी धर्मग्रंथ का नाम 'तनख' है, जो इब्रानी भाषा में लिखा गया है।
यहूदियों के इतिहास पर नजर डालें तो इसका सही सटीक इतिहास ईसा से करीब 1 हजार साल पूर्व किंग डेविड के समय से मिलता है। डेविड को इस्लाम में दाउद के नाम से संबोधित किया गया है। किंग डेविड ने यूनाइडेट इजराइल पर शासन किया। डेविड के बेटे हुए किंग सोलोमन जो इस्लाम में सुलैमान हुए। किंग सोलोमन ने करीब 1,000 ईसा पूर्व में यहां एक भव्य मंदिर बनवाया। यहूदी इसे फर्स्ट टेम्पल कहते हैं। यहां भगवान यहोवा की पूजा होती थी।
किंग सोलोमन की मौत के बाद यहूदी बिखर गए और फिर सदियों तक एक छत नसीब नहीं हुई। ईसा पूर्व 931 में यूनाइटेड इजराइल में सिविल वॉर हुआ और ये इलाका उत्तर में इजराइल किंगडम और दक्षिण में जूदा किंगडम में बंट गया। यहीं से इजराइल के पतन की कहानी शुरू होती है, लेकिन वो सबसे बड़ी गलती होनी बाकी थी जिसने आने वाले 2 हजार साल तक यहूदियों का पीछा नहीं छोड़ा। इजराइल के बंटवारे के बाद वहां बेबीलोन साम्राज्य का कब्जा हुआ जो इराक के राजा थे। ईसा पूर्व 587 में बेबीलोन ने यरुशलम में किंग सोलोमन के बनाए यहूदियों के पहले मंदिर को ध्वस्त कर दिया।
तकरीबन पांच सदी बाद, 516 ईसापूर्व में यहूदियों ने दोबारा इसी जगह पर एक और मंदिर बनाया। वो मंदिर कहलाया- सेकेंड टेम्पल। इस मंदिर के अंदरूनी हिस्से को यहूदी कहते थे- होली ऑफ़ होलीज़। ऐसी जगह, जहां आम यहूदियों को भी पांव रखने की इजाज़त नहीं थी। केवल श्रेष्ठ पुजारी ही इसमें प्रवेश पाते थे। उस दौर में यहूदी कुछ संभले और इनकी आबादी भी लाखों में पहुंच चुकी थी। यहूदियों ने शिक्षा और व्यापार के जरिए खुद को मजबूत बनाए रखा। ईसा पूर्व साल 332 में इजराइल की धरती पर सिकंदर ने कदम रखें और उसकी मौत तक वो राजा रहा।
सिकंदर की मौत के बाद ईसा पूर्व 63 में रोमन्स ने यहूदियों की जमीन पर कब्जा कर लिया। इस दौरान ईसा मसीह के जन्म के साथ ईसाई धर्म का उदय हुआ। ईसा मसीह एक यहूदी थे, लेकिन वो अपनी अलग विचारधारा लेकर आए। ईसा ने खुद को परमेश्वर का पुत्र कहा। कई यहूदी उनके शिष्य बनने लगे और ईसाई धर्म की नींव पड़ी। उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया जो रोमन और यहूदी दोनो को पसंद ना आया। बस यहीं पर यहूदियों से वो गलती हो गई जिसकी भरपाई अगले 2000 साल तक करनी पड़ी।
कहा जाता है कि यहूदियों ने ही रोमन गवर्नर पिलातुस को भड़काया और पिलातुस ने ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाकर मारने का आदेश दिया। ईशु की मौत में जिम्मेदार होने का कलंक यहूदियों के साथ चस्पा हो गया कि ये श्राप बन गया। इसके बाद तो कई सदियों तक यहूदियों का नरसंहार हुआ। ईसा मसीह की मौत के करीब 37 साल बाद यहूदियों ने रोमन साम्राज्य के खिलाफ बगावत कर दी। बदले में रोमन सेनाओं ने यरुशलम को तबाह कर दिया। इस दौरान एक ही दिन में करीब 1 लाख से ज्यादा यहूदियों को कत्ल कर दिया गया। सेकंड टैंपल भी नेस्तनाबूद कर दिया।
यरुशलम के तबाह होने के बाद यहूदियों ने इजराइल से भागकर दुनिया के दूसरे मुल्कों में शरण ली। वो यूरोप, अफ्रीका, अरब और एशिया तक में फैल गए पर उनका कत्लेआम तब भी नहीं रुका। ईसा 300 में बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया। कांस्टैंटिन द ग्रेट जो कि एक रोमन राजा था उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया। वो पहला रोमन बादशाह हुआ जिसने ईसाई धर्म को चुना। अब रोमन और ईसाई एक हो चुके थे जबकि यहूदी बिल्कुल अकेले पड़ गए। यहूदियों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए। वो गुलाम नहीं रख सकते थे। बाहर शादी नहीं कर सकते थे। अपने धार्मिक स्थल नहीं बना सकते थे। अगले 500 सालों तक ईसाई ही यहूदियों के दुश्मन रहे।
ईस्वी 570 में मक्का में हजरत मोहम्मद का जन्म हुआ। ईस्वी 622 में वो मक्का से मदीना गए। मदीना में तब अरबी कबीलों के अलावा ज्यादा आबादी यहूदियों की थी और तीन मुख्य कबीले यहूदियों के पास थे। यहां पर इस्लाम और यहूदियों के बीच संधि हुई कि जब हमला होगा तो मुसलमान और यहूदी मिलकर उनका मुकाबला करेंगे। यहूदियों पर आरोप लगाए जाते हैं कई बार उन्होंने दुश्मनों का साथ दिया और पैगंबर मोहम्मद के साथ धोखा किया। यहीं से यहूदियों और इस्लाम के बीच अविश्वास और दुश्मनी की नींव पड़ी जो आज भी बदस्तूर जारी है।
इस्लामिक पीरियड से एक धार्मिक मान्यता भी जुड़ी है। क़ुरान के मुताबिक, सन् 621 के एक रात की बात है। पैगंबर मोहम्मद एक उड़ने वाले घोड़े पर बैठकर मक्का से जेरुसलम आए। यहीं से वो ऊपर जन्नत में चढ़े। यहां उन्हें अल्लाह से कुछ आदेश मिले। इन आदेशों में इस्लाम के मुख्य सिद्धांतों के बारे में बताया गया था। सन् 632 में पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु हुई। इसके चार साल बाद मुस्लिमों ने जेरुसलम पर हमला कर दिया। तब यहां बैजेन्टाइन साम्राज्य का शासन था। मुस्लिमों ने जेरुसलम को जीत लिया। आगे चलकर उम्मयद खलीफाओं ने जेरुसलम में एक भव्य मस्जिद बनवाई। इसका नाम रखा- अल अक्सा। इसी अल-अक्सा मस्ज़िद के सामने की तरफ़ है, एक सुनहरे गुंबद वाली इस्लामिक इमारत। इसे कहते हैं- डोम ऑफ़ दी रॉक।
इस्लामिक पीरियड के बाद आरंभ हुआ क्रूसेडर का क्रूर कालखंड। इस दौरान ईसा मसीह को मारने में जो भी कम्यूनिटी शामिल थी उन्हें मारा गया। सबसे ज्यादा यहूदियों का कत्लेआम हुआ। मुस्लमानों को भी मारा गया। इसके बाद 12वीं सदी में मामलूक पीरियड और फिर उस्मानिया साम्राज्य में भी यहूदियों की हालत अच्छी नहीं। जिसके कारण इन्होंने रूस में शरण लेने की कोशिश की। लेकिन वहां भी इनका नरसंहार हुआ और ईसा मसीह की मृत्यु के साथ चला आ रहा श्राप परछाई बनकर चलता रहा।
फिर यहूदियों को पौलेंड और लिथुआनिया में सुरक्षित ठिकाना मिला पर वो भी लंबे अरसे तक ना रहा क्योंकि ये भी तो किराए की ही जमीन थी। फिर आया फ्रेंच रिवॉल्यूशन। ऐसा लगने लगा कि अब यहूदियों को उनके अधिकार मिल जाएंगे क्योंकि नेपोलियन ने फ्रांस की क्रांति के बाद इन्हें फ्रांस बुलाया। लेकिन जल्द ही वहां भी इनके दुश्मन पैदा हो गए। यहूदियों ने ना तो कभी यीशू को और ना ही कभी हजरत मोहम्मद को पैगंबर का दर्जा दिया और यही कारण है कि इनको ईसाई और मुसलमानों ने कभी गले नहीं लगाया।
अब तक पहले विश्वयुद्ध का बिगुल बज चुका था। यहां से ब्रिटेन की एंट्री मिडिल ईस्ट में हुई। ब्रिटेन ने यहूदियों को उनका अधिकार दिलाने का वादा किया। बदले में समर्थन मांगा। 1917 में ब्रिटेन ने एक स्टेटमेंट जारी किया जिसे- बेलफोल डेक्लरेशन कहते हैं। इसमें अंग्रेज़ों ने वादा किया कि वो फ़िलिस्तीन में ‘ज्यूइश नैशनल होम’ के गठन को सपोर्ट करेगा। लेकिन परदे के पीछे ब्रिटेन ने फ्रांस के साथ उस्मानिया साम्राज्य का अंत करने के लिए साइक्स-पिकॉट एग्रीमेंट भी साइन कर दिया। अब फिलिस्तीन पर यूके का कंट्रोल था, जो सेकंड वर्ल्ड वॉर तक रहा। इस दौरान यहूदियों ने फिलिस्तीन में कई जमीनें खरीदी।
फर्स्ट वर्ल्ड वॉर और सेकंड वर्ल्ड वॉर के बीच का समय यहूदी इतिहास का सबसे काला अध्याय साबित हुआ। करीब 60 लाख यहूदियों को हिटलर ने गैस चैंबर में मरवा दिया। हिटलर के नरसंहार से बचने के लिए जर्मनी समेत यूरोप के बहुत से हिस्सों से यहूदी अमेरिका पहुंचे। दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर की हार हुई और संयुक्त राष्ट की स्थापना हुई।
संयुक्त राष्ट्र की आगुवाई में दुनिया ने तय किया कि अब यहूदियों को उनका एक देश दे देना चाहिए। इस तरह साल 1948 में उस भूमि का बंटवारा हो गया जहां सबसे पहले यहूदियों ने राज किया था किंग डेविड और किंग सोलोमन के समय। हां बाद में वहां रोमन, सिकंदर, बेबलियोन, मुसलमान और ईसाइयों ने भी राज किया।
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